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हिन्दी: धौलपुर के जी.टी. रोड से तीन किलोमीटर दूर अरावली पर्वत श्रंखलाओं की गोद में स्थित है सुरम्य प्राकृतिक सरोवर मुचुकुण्द। इसे पूर्वाचल का पुष्कर कहा जाये तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी। कुण्ड का सुरम्य स्वरूप व मन्दिरों का निर्माण 1856 में महाराजा भगवन्त सिंह जी के कार्यकाल की देन है। यह स्थल मान्धता के पुत्र महाराज मुचुकुण्द और भगवान कृष्ण के जहाँ आगतन की गवाही दे रहा है। इसका उल्लेख विष्णु पुराण के पंचम अंश के 23वें अध्याय में व श्रीमद् भागवत के दशम स्कंद के 51वें अध्याय में मिलता हैं
तीर्थराज मुचुकुण्द का इतिहास त्रेता युग में महाराजा मान्धाता के तीन पुत्र हुए, अमरीष, पुरू और मुचुकुण्द। युद्ध नीति में निपुण होने से देवासुर संग्राम में इंद्र ने महाराज मुचुकुण्द को अपना सेनापति बनाया। युद्ध में विजय श्री मिलने के बाद महाराज मुचुकुण्द ने विश्राम की इच्छा प्रकट की। देवताओं ने वरदान दिया कि जो तुम्हारे विश्राम में खलल डालेगा, वह तुम्हारी नेत्र ज्योति से वहीं भस्म हो जायेगा। देवताओं से वरदान लेकर महाराज मुचुकुण्द श्यामाष्चल पर्वत(जहाँ अब मौनी सिद्ध बाबा की गुफा है) की एक गुफा में आकर सो गयें। इधर जब जरासंध ने कृष्ण से बदला लेने के लिए मथुरा पर 18वीं बार चढ़ाई की तो कालियावन भी युद्ध में जरासंध का सहयोगी बनकर आया। कालियावन महर्षि गार्ग्य का पुत्र व म्लेक्ष्छ देश का राजा था। वह कंस का भी परम मित्र था। भगवान शंकर से उसे युद्ध में अजय का वरदान भी मिला था। शंकर ने वरदान को पूरा करने के लिए कृष्ण रण क्षेत्र छोड़कर भागे। तभी कृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है। कृष्ण को भागता देख कालियावन ने उनका पीछा किया। मथुरा से करीब सवा सौ किमी दूर तक आकर श्यामाश्चल पर्व त की गुफा में आ गये जहाँ मुचुकुण्द महाराज जी सो रहे थे। कृष्ण ने अपनी पीताम्बरी मुचुकुण्द जी के ऊपर डाल दी और खुद एक चट्टान के पीछे छिप गये। कालियावन भी पीछा करते करते उसी गुफा मे आ गया। दंभ मे भरे कालियावन ने सो रहे मुचुकुण्द जी को कृष्ण समझकर ललकारा। मुचुकुण्द जी जगे और उनकी नेत्र की ज्वाला से कालियावन वहीं भस्म हो गया। जहाँ भगवान कृष्ण ने मुचुकुण्द जी को विष्णुरूप के दर्षन दिये। मुचुकुण्द जी दर्षनों से अभिभूत होकर बोले-हे भगवान! तापत्रय से अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार चक्र में भ्रमण करते हुए मुझे कभी शांति नहीं मिली। देवलोक का बुलावा आया तो वहाँभी देवताओं को मेरी सहायता की आवष्यकता हुई। स्वर्ग लोक में भी शांति प्राप्त नही हुई। अब मै आपका ही अभिलाषी हूँ कृष्ण के आदेश से महाराज मुचुकुण्द जी ने पाँच कुण्डीय यज्ञ किया। यज्ञ की पूर्णाहुति ऋषि पंचमी के दिन हुई। यज्ञ में सभी देवी-दवताओ व तीर्थों को बुलाया गया। इसी दिन कृष्ण से आज्ञा लेकर महाराज मुचुकुण्द गंधमादन पर्वत पर तपस्या के लिए प्रस्थान कर गये। वह यज्ञ स्थल आज पवित्र सरोवर के रूप में हमें इस पौराणिक कथा का बखान कर रहा है। सभी तीर्थो का नेह जुड जाने से इसे तीर्थों का भांजा भी कहा जाता है। हर वर्ष ऋषि पंचमी व बलदेव छठ को जहाँ लक्खी मेला लगता है। मेले में लाखों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं। शादियों की मौरछड़ी व कलंगी का विसर्जन भी जहाँ करते है। माना जाता है कि जहाँ स्नान करने से चर्म रोग सम्बन्धी समस्त पीड़ाओं से छ ुटकारा मिलता है। तीर्थराज मुचुकुण्द का मुख्य आकर्षण चार मन्दिरों में निहित है। 1. लाडली जगमोहन मन्दिर मुचुकुण्द के पूर्वी-दक्षिणी घाट पर स्थित तीन मंजिल का यह विषाल मन्दिर धौलपुर के लाल पत्थरों से जड़ित है और षिल्पकला व नक्काषी का नायाब नमूना है। रियासत दीवान राजधरजू कन्हैयालालजी ने राज खजाने से इस मन्दिर क निर्माण कराया था। इस मन्दिर की स्थापना अषाढ़ कृष्ण चतुर्थी सम्वत् 1899 को की गई थी। मन्दिर में प्रवेश के बाद चौक से करीब तीन फीट ऊॅचाई पर लाडली जगमोहन का गर्भग्रह है। भगवान श्री कृष्ण ने गोर्वधन पर्वत को उठा कर ग्वाल बालों की रक्षा की। साथ ही बांसुरी बजाकर गोकुलवासिंयों को इस कदर मोहित किया कि वे इन्द्र के भय को भूल गये। तब कृष्ण जगमोहन कहलायें। चौक मे मध्य करीब 7 फीट ऊॅचाई पर अष्टकोण में षिवालय है जहाँ पंचमुखी शिवलिंग, शिव परिवार के साथ स्थापित है। षिवालय के दाहिनी ओर हनुमानजी व राम जानकी, बलराम विराजमान है। लाड़ली जगमोहन मन्दिर की ओर से हर माह की पूर्णिमा के अवसर पर मुचुकुण्द में दीपदान और माहआरती के बाद भण्डारा आयोजित किया जाता है। तथा अमावस्या को तीर्थराज मुचुकुण्द सरोवर की परिक्रमा का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण जन्मोत्सव विषेष पर्व के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। 2. राजगुरू मन्दिर तीर्थराज मुचुकुन्द के दक्षिण में स्थित इस मन्दिर में श्री जगन्नाथ जी महाराज की स्थापना सम्वत् 1898 के लगभग महाराजा भगवन्त सिंह जी द्वारा कराई गई। इस मन्दिर में मुख्य विग्रह श्री जगन्नाथ जी महाराज, श्री वलरामजी महाराज उनकी बहन सुभ्रदा जी, रामचंद्रजी, श्री लक्ष्मण जी, श्री जानकी सहित अनेक विग्रह सिंघासन पर सुषोभित है। इस मन्दिर को वैकुंठ वासी महाराजा भगवन्त सिंह जी के द्वारा राजगुरू मन्दिर की उपाधि दी गई थी इस कारण इस मन्दिर को राजगुरू मन्दिर के नाम से जाना जाता है। 3. मन्दिर रानीगुरू मन्दिर श्री मदनमोहन जी मुचुकुण्द सरोवर के अग्नि कोण में स्थापित हैं। इस मन्दिर की स्थापना संवत् 1899 के करीब तत्कालीन महारानी धौलपुर विदोखरनी के द्वारा कर्राइ गई थी। इस मन्दिर में विग्रह श्री मदनमोहन जी एवं श्री राधाजी, अनेक विग्रहों सहित गर्भगृह में स्थापित हैं। इस मन्दिर को महारानी जी के द्वारा रानीगुरू की उपाधि दी गई थी। इसी कारण आज इस मन्दिर को रानीगुरू मन्दिर के नाम से जाना जाता है। 4. शेर शिकार गुरूद्वारा मुचुकुण्द सरोवर के किनारे पर सिक्ख धर्मावलम्बियों का धार्मिक स्थल है जो शेर शिकार गुरूद्वारा के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है कि 4 मार्च 1612 को सिक्खों के छठे गुरू हरगोविन्द सिंह जी ग्वालियर से जाते समय जहाँ ठहरे थ। उस समय जहाँ घना जंगल था। उन्होने अपनी तलवार के एक ही वार से जहाँ शेर का शिकार किया था। इस लिए इस गरूद्वारे को शेर शिकार गुरूद्वारा कहा जाता है।
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current | 04:50, 13 September 2019 | 800 × 600 (88 KB) | Mdshadabofficial (talk | contribs) | User created page with UploadWizard |
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